किसी कहानी या उपन्यास को पढ़ते वक्त मेरा मकसद कभी भी महज़ टाइम पास वाला नहीं रहा। जब भी हम किसी का अच्छा, बुरा या फिर औसत लिखा हुआ पढ़ते है तो भी वह कहीं ना कहीं हमारे अंतर्मन के किसी ना किसी कोने में अपनी बैठ बना कर, दुबकते या फिर सुबकते हुए बैठ जाता है और जब कभी हम कुछ लिखने बैठते हैं, बेशक बरसों बाद ही सही, वही पुराना लिखा हुआ किसी ना किसी बहाने हमारे अवचेतन से, चाहे अनचाहे किसी ना किसी संदर्भ, दृश्य या शब्द के रूप में हमारे समक्ष आ अपनी हाज़िरी बजा जाता