दहलीज पर संवाद

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दहलीज पर संवाद अंधेरी डयोढ़ी को पार कर दोनों शिथिल आकृतियां जीने की तरफ बढ़ती हैं। पुरानी चप्पलों की धीमी चरमराहट के साथ-साथ सीमेंट के फर्श पर छड़ी के बार-बार टिकाए जाने का अपेक्षाकृत तेज स्वर उभरता है, फिर रुक जाता है। ''देखकर आना, सुमित्रा अंधेरा है।" ''बत्ती क्या हुई?" ''तोड़-ताड़ दिया होगा बल्ब, पड़ोस के बच्चों ने।" ''गए थे तो ठीक था।" ''हरामखोर कहीं के।" चप्पलों की चरमराहट और छड़ी की टक-टक का समवेत स्वर फिर शुरू होता है। इस बार उसमें हांफने की भारी आवाज जुड़ जाती है। ऊंची चढ़ती हुई छड़ी की टक्-टक् दो-तीन क्षणों के लिए