ये लम्हा...... गुज़र जाने दो

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ये लम्हा...... गुज़र जाने दो डॉ. गरिमा संजय दुबे "तुम समझ रही हो मैं क्या कह रहा हूँ ", सुबकती हुई बिंदु को विनोद ने झकझोरते हुए कहा, "अब कोई चारा नहीं रहा, ज़िन्दगी हाथ से फिसल चुकी है । मैं अपने परिवार को दर दर की ठोकरें खाते नहीं देख सकता । तुम्हे एक चीज़ की समझ नहीं है, अगर मैं अकेला चला जाऊंगा तो इस बच्चे को लेकर कहाँ कहाँ भटकोगी, सब साथ चलते हैं, कोई नहीं रहेगा तो किसी को तकलीफ़ नहीं होगी"। रोते रोते थर थर कांपने लगी थी बिंदु, सिसकियाँ हिचकियों में बदल गई थी