दास्ताँ ए दर्द ! 14 इस बार प्रज्ञा अपने मन पर एक ऐसा बोझ लेकर लौटी जिसको उतारना उसके लिए बेहद ज़रूरी था | वह दिन-रात असहज रहने लगी थी | एक ऎसी बीमारी से ग्रसित सी जिसका कोई अता-पता न था फिर भी भीतर से वह उसे खाए जा रही थी | सत्ती कभी भी उसे झंझोड़ देती और वह चौंककर, धड़कते हुए हृदय से उसके साथ हो लेती | सत्ती रातों को उसे जगाकर जैसे झंझोड़ डालती और जैसे उससे पूछती --बस, हो गया शौक पूरा ? जीवन में अनजाने, अनचाहे ऐसे मोड़ आ जाते हैं जो मनुष्य को सहज तो