निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 40 - अंतिम भाग

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'बंद आँखों का वह चाक्षुष-दर्शन'…पिताजी से पूछे जानेवाले प्रश्नों की फेहरिस्त लम्बी होती जा रही थी। उनसे संपर्क की इच्छा बार-बार मन में उठती थी, जिसे मैं मन में ही दबा देता था। मेरी हिम्मत ही नहीं होती थी कि प्लेंचेट बोर्ड बिछाकर बुलाऊँ उन्हें ! डर था कि कहीं बोर्ड पर ही बुरी तरह डाँट न खानी पड़े। पिताजी को गुज़रे सवा साल बीत गए थे, इस बीच उनको स्वप्न में कई बार देखा था, बातें की थीं, विलाप किया था; किन्तु प्लेंचेट पर बुलाकर बात करने की कभी हिम्मत नहीं हुई।एक रात गहरी नींद सोया और विचित्र स्वप्न-दर्शन