निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 38

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'विषाद की छाया में, जब सच हुआ स्वप्नादेश'…पिताजी की शारीरिक अक्षमता बढ़ती जा रही थी, हमारा सारा ध्यान उन्हीं की परिचर्या में लगा हुआ था, दो श्वेतवत्रधारियों का चिंतन करने का अवकाश भी कहाँ था? पिताजी की शोचनीय दशा की ख़बर पाकर स्थानीय और दूर-दराज़ के परिजन घर आने लगे थे। मेरी सासुमाँ और श्वसुर मध्यप्रदेश से आये थे। घर भरा हुआ था। पिताजी आगंतुकों को पूरे आत्मविश्श्वास से बताते कि साधना की नियुक्ति केंद्रीय विद्यालय में हो गई है और आगंतुक साधनाजी को बधाइयाँ देने उनके पास पहुँच जाते। साधनाजी क्षुब्ध और निरीह हो जातीं; उन्हें कहतीं कि बाबूजी