दास्ताँ ए दर्द ! 3 वह दिन प्रज्ञा के लिए यादगार बन गया था | वह अकेली लंदन की सड़कों पर घूम रही थी, किसी भी दुकान में घुसकर 'विंडो-शॉपिंग' करने में उसे बड़ा मज़ा आ रहा था | वह एक आर्टिफ़िशियल ज्वेलरी की दुकान में घुस गई थी और वहाँ की सरदार मालकिन से बातें करने लगी थी जिसका पति टैक्सी चलाता था और वह स्वयं एक दुकान की मालकिन थी | "कुछ ले लो बहन जी ----" काफ़ी शुद्ध हिंदी बोलती थीं वो, बता दिया उन्होंने, दिल्ली में जन्मी, बड़ी हुई थीं |शादी के बाद यहाँ आई थीं, पच्चीस बरस से ज़्यादा