बहीखाता - 28

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बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 28 उम्मीद रात का समय था। गहरा अँधेरा था और हल्की हल्की बारिश हो रही थी। ऊपर से जबर्दस्त ठंड। गर्मी के मौसम में भी इतनी ठंड पड़ सकती है इसका मुझे पता ही नहीं था। मैं अपना बैग उठाये बाहर सड़क पर खड़ी थी। अपनो से दूर, बेगाने मुल्क में, बिल्कुल अकेली। सड़क एकदम वीरान थी। कोई कोई कार उधर से गुजरती। पता नहीं उसमें बैठे लोग मेरी तरफ देखते थे कि नहीं, पर मैं अपनी ओर अवश्य देख रही थी। किसी फिल्म के सीन-सा लगता था सबकुछ। अब कहाँ