ख़ुशबू का रंग परिन्दों के लौटने का मौसम आ गया है। बफ़र् पिघल-पिघल कर पहाड़ों के दामन पर जमा हो गई है और जज्मीन नन्ही-नन्ही हरी कोंपलों से भर गई है। मगर मैं वहीं उसी तरह खड़ी हूँ। तुम्हारे लौटने की कोई ख़बर मुझ तक नहीं पहुँचती है, जबकि बेजज्ुबान परिन्दे बिना पुराने ठिकानाें को भूले लौट रहे हैं। ये घोंसले दुरुस्त करेंगे और रहना शुरू कर देंगे, मगर मैं उसी तरह लुटी तन्हा-सी, तश्ना रह जाऊँगी। मौसम यूँ ही बदल जाएँगे और मैं तिनका-तिनका जोड़कर बस उन्हें सँभालती ही रह जाऊँगी। बहुत चाह कर भी उन्हें घर का रूप