मृत्यु-बोध मैं पहली बार श्मशान गया था। अन्त्येष्ठि मेरे मित्र की थी इसलिये खालीपन का कसैला स्वाद रह-रहकर मस्तिष्क अनुभव कर रहा था। मेरे इर्द-गिर्द सभी चेहरे मुझे सहमे हुए लगे। कुछ अवश्य ऐसे भी थे जो श्मशान में भी ‘हैलो’ कहकर अभिवादन करने की रस्में पूरी कर रहे थे। दायें हाथ की सिगरेट, बायें हाथ में थामा कर हाथ भी मिला रहे थे। मुझे उनकी यह अंग्रेजियत हरकत बद्बूदार लगी। मैंने फटी नीकर पहने एक छोकरे को भी देखा। उसने एक रात पुरानी चिता से दहकते अंगारे को ढूंढ़ निकाला और उससे बिड़ी सुलगाई। दो-तीन कश खींची और चलता