अमर प्रेम प्रेम और विरह का स्वरुप (4) उधर अजय अपने वादे पर अटल था ----- दोबारा कभी न मिलने का वादा। अब उसने अर्चना को पुकारना छोड़ दिया था शायद अर्चना से मिलकर उससे अपना हाल-ए-दिल कहकर अजय को वक़्ती सुकून मिल गया था मगर फिर भी एक उदासी हर पल उसके जेहन पर छाई रहती ।अर्चना की यादों के साये हर पल उसके मानस- पटल पर छाये रहते । अब तो उसने खामोशी को अपना हमसफ़र बना लिया था और गुमनाम अंधेरों में जीवन गुजारने लगा था सिर्फ़ अर्चना की कवितायेँ पढता और उन्हें अपनी चित्रकारी से सजाता।