किताब

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दुनिया सिर्फ कहती नही जनाब ,वो अक्सर कहती रहती है यहाँ लकड़े कहाँ ;सिर्फ़ लड़कियाँ ही तो सहती रहती है ...हम तुमसे अनजान थे अब तो वो समा ही बेहतर लगता है ,तेरा मुझे जानकर भी अनजान बनना मुझे कितना खटकता है ...ए वक्त तू भी क्या खेल खेलता है हर बार मिलाकर हमें बिछड़ना सिखाता है कुछ लम्हे सुकून के देता तो है मगरफिर आँसू की बहार भी क्या कम देता है ! ए वक्त तू भी क्या खेल खेलता है ...हर पल मैं शिकायत वक़्त से यही करता हूँ कि बिता हुआ आज ,कल फिर क्यूँ नही आता ...जी लो इन आखिरी लम्हों को आखिरी बार फिर