“जंगली फूल कब पनप जाते हैं यूँ ही, न जाने कैसे, बिना किसी देखभाल के, कौन जाने. न उन्हें पानी चाहिए, न धूप की दरकार सहारा भी कोई नहीं, न कोई वृक्ष ही आस-पास! वह बढा करते हैं बेसब्रे-से बेहया की बेल की तरह, बैंगनी रंग के जिसके फूल उग आते हैं कहीं भी, तालाब-पोखर के किनारे और बिखेर देते हैं, ठंडी हवा की खुशबुएँ! ऐसा ही एक फूल हूँ, मैं भी शायद, बेहया का, वही बैंगनी, ताल के किनारे, झुरमुटों के साए में हूँ अनजान अपनी जिजीविषा से भी!” मैं हमेशा की तरह ऑफिस में बैठा, खाली समय