बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 13 पीएच.डी. एक दिन मैं यूनिवर्सिटी में आयोजित हो रहे एक सेमिनार में हिस्सा लेने गई। वहाँ जाकर देखा कि आलोचना के मामले में कितना कुछ बदल गया था। आलोचना की नई नई प्रणालियों के बारे में बातें हो रही थीं। पंजाबी साहित्य को लेकर अन्य तरह की बातें हो रही थीं। मुझे लगा मानो ये किसी परायी दुनिया की बातें हो रही हों। मुझे अपना आप आउट-डेटिड प्रतीत होने लगा। मैं तो कालेज में गिद्धे-भंगड़े में ही मशरूफ रही जैसे कुएं का मेंढ़क ही बन गई थी और यूनिवर्सिटी में