निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 30

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फिर खुलेंगे बंद द्वार, क्या लौटोगे तुम एक बार ?…सन '७७ के दिन यूँ ही बदहवास से बीतते रहे। दस महीनों की लम्बी अवधि गुज़र गई और परा-जगत् से संपर्क की कोई सूरत नहीं निकली।दिल्ली-प्रवास में रविवार की सुबह साहित्यिक गोष्ठियों की गुनगुनी धूप लेकर आती, जब नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन शास्त्रीजी पिताजी से मिलने मेरे घर पधारते। यह त्रिमूर्ति उसी कॉलोनी में निवास करती थी। उनकी गोष्ठियां दिल्ली के निरानंद जीवन में आनंद की एक ठंढी बयार-सी होतीं। कभी-कभी दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ प्राध्यापक भी आते और बैठकें लम्बी खिंच जाती। कविताएं होतीं, गंभीर विमर्श होते और गप्पें होतीं।