निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 27

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'बस, मैं तेरा अन्वेषक था, जनम-जनम का… 'दिन हांफते-दौड़ते थककर शाम की छाया में जा बैठा। हम दफ़्तर से लौटे--निःशब्द, अपने-अपने पैर घसीटते हुए। शाही ने चाय बनायी, हम दोनों ने पी, लेकिन कोई किसी से कुछ नहीं बोला। वह अजीब उदास शाम थी। क्लब जाने का मन नहीं हुआ। शाही जॉगिंग पर गये। मैं कभी कमरे में, कभी आहाते में अपनी उलझी मनःस्थिति लिए चहलकदमी करता रहा। फिर शाम भी रात के आगोश में सिमटने लगी। कमरे की कुण्डी लगाकर मैं सामने की सड़क पर आ गया। मैं अवचेतन में कहीं एक पुकार सुन रहा था। मंद गति से