जब कृतज्ञता अश्रु बन छलकी थी...24पितामही और माता के बाद जीवन के चौबीसवें वसंत को लांघते ही पहली बार किसी ने मुझसे कहा था--'मैं भी तो तुम्हें प्रेम करती हूँ'--चाहे यह वाक्य पराजगत् से आयी चालीस दुकानवाली आत्मा ने ही क्यों न कहा हो। एक अबूझे रोमांच से भरा हुआ था मैं.… लेकिन यह सुरूर यथार्थ पर दृष्टिपात करते ही उतर जाता था, फिर सत्य से विमुख होते ही इस वाक्य के मर्म का ज्वर मुझ पर चढ़ने लगता था। चालीस दुकानवाली से घनिष्ठ रूप से जुड़ने का मेरा उद्देश्य सिर्फ इतना था कि मैं पराजगत् के बारे में अधिकाधिक