जब मूर्तिमान अवसाद आँसुओं से धुल गया था... २०-२५ दिनों से प्लैन्चेट का बोर्ड उदास पड़ा था। मैं भी शाही की इच्छा-पूर्ति में चाहे-अनचाहे उनका साथ दे रहा था। लेकिन कई बार मन बेचैन हो उठता था, लगता था एक समूची दुनिया के व्यग्र लोग मेरी प्रतीक्षा में होंगे और मैं अपने द्वार बंद किये बैठा हूँ। ख़ास तौर से चालीस दुकानवाली की फिक्र मुझे हलकान करती। मैं जानता था, वह मुझसे बहुत नाख़ुश होगी और बोर्ड के बिछते ही आ धमकेगी और खूब झगड़ेगी। कभी-कभी रात में सोते हुए अचानक पूरे शरीर में सिहरन होती, कभी लगता कोई मुझे झकझोर