मेरा यह व्यंग्य उस डर के ऊपर केन्द्रित है जो काल्पनिक, झूठा, और बेसिर पैर का होता है. जिसको कुछ स्वार्थी तत्व बार बार दिखा कर लोगों को डराते हैं. और उस डर के ज़रिये अपना स्वार्थ साधते हैं. यह व्यंग्य हमें हंसाता, गुदगुदाता तो है ही, हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर भी करता है.