आषाढ़ का फिर वही एक दिन - 2

  • 6.3k
  • 1.6k

आषाढ़ का फिर वही एक दिन (कहानी: पंकज सुबीर) (2) दूसरा कमरा जिसे ड्राइँग रूम कहा जा सकता है उसमें अब भार्गव बाबू नाश्ते के लिये आ चुके हैं । घड़ी साढ़े आठ के आस पास है । भार्गव बाबू के घर समाचार पत्र नहीं आता । वे सुबह की ख़बरें टीवी से प्राप्त करते हैं । पराँठे के कौर, अचार के मसाले के साथ उदरस्थ करने में जुटे हैं भार्गव बाबू । बीच बीच में किसी नेता को टीवी पर देख लेते हैं तो मुँह ही मुँह में बुदबुदा देते हैं ‘सब चोर हैं...’ और वाक्य में आदत के