फाँस

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फाँस कमली न जाने क्यों मन में ईर्ष्या की गांठ लिये बड़ी देर तक मकान के छज्जे की छाया में बैठकर ऊंचे तारागढ़ की चोटी से मंथर गति से उतरती उस छांव को एकटक देखती रही जो पहाड़ से उतरकर न जाने कब मैदान में आकर मकानों की छतों से उतरते चढ़ते न जाने कहां खो गई । उसी के साथ न जाने कब तक खोई रही कमली अपने आप में.......। ऐसा तो कभी नहीं हुआ उसके साथ .....कि वो सुगना को अकेला छोड़ बिना कुछ खाये-पिये ऐसे एकान्त में धूनी रमा सके...। फिर आज ऐसा क्या हुआ उसे जो...।