बड़े भाग पाया गुर-भेद... 'रात गयी और बात गयी'-जैसा मेरे साथ कुछ भी नहीं हुआ। रात तो बेशक गयी, बात ठहरी रही--अपनी अपनी पूरी हठधर्मिता के साथ। हमारी संकल्पना पूरी तरह साकार न हो, तस्वीर वैसी न बने जैसी हम चाहते हों, तो बेचैनी होती है। यही बेचैनी मुझे भी विचलित कर रही थी। जितने प्रश्न पहले मन में उठ रहे थे, वे द्विगुणित हो गए। मैंने सोचा था, औघड़ बाबा अब कुछ ऐसा अद्भुत-अलौकिक करेंगे, जिससे मेरी माता, धुंधली छाया बनकर, झीने आवरण में ही सही, स्वयं उपस्थित होंगी अथवा मुझे उनका मंद स्वर सुनने को मिलेगा, लेकिन वैसा