उस रात का सवेरा न हुआ

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पश्चिम के धोरे (रेत का टीला) को भगवान भास्कर मुकुट बन कर सुशोभित कर रहे थे | थार की धरा जैसे पीत वस्त्र धारण कर चुकी हो | यह संकेत था, शाम की चाय के समय का | 1965-70 का काल | ग्रामीण इलाकों में तब घड़ियों का चलन नहीं था | माँ ने चाय बनाई, मुझे कहा दाता (दादाजी) को देकर तुरन्त वापस आ जाओ | वापस आने पर बोली, अब मजदूरों को दे आओ | मैंने कहा, उन्हें तो खुदाई में सोने के सिक्के मिले थे | वे लेकर घर चले गए | इतना कहकर खेलने के लिए