ठो...ठो...ठो...। मकान की नींव हिलने लगती है। दीवारें काँपने लगती हैं। बाबूजी के मुख से पड़ोसी के लिए गालियाँ फूटने लगती है। ’ठोकी-ठोकी नऽ भीतड़ो ओदार दगा रे भई।’ माँ कुढ़ने लगती है। मेरा कलेजा काँपने लगता है कि कहीं भीत धँस ही न जाए। धमनियों और शिराओं में रक्त-प्रवाह तेज हो जाता है। नींद उड़ जाती है। यह रोज की त्रासदी है।