सबरीना - 14

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रात ढल रही थी, पर शहर अभी गहरी नींद में सोया हुआ था। ताशकंद ने अपनी धरोहरों को करीने से समेटा हुआ था। साम्यवादी ढंग की इमारतों के बीच पुराने दौर के इक्का-दुक्का गुंबद, मदरसों की इमारते और इसलामिक संस्कृति के केंद्र इस शहर में कोई नया रंग भरने में नाकाम दिखते थे। सबरीना ने खुद को सुशांत के कंधे से अलग करने की कोई कोशिश नहीं। शून्य में देखते-देखते सुशांत को कल रात का वाकया याद आ गया, जब वो दिल्ली से उड़कर ताशकंद इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर उतरा था, पहली निगाह में उसे निराशा हुई थी।