“आज उम्र के जिस पड़ाव पर बैठा हूँ, यहाँ आराम से बैठकर पीछे देखना सुविधाजनक लगने लगा है. पिछले कई साल से अनुभव करने लगा हूँ, देह की, मन की आग अब वैसी तीव्रता से नहीं जलाती, जैसी तब थी, जब इस सारे नाटक का आरंभ हुआ था.” “नाटक?” “हाँ, नाटक ही तो है. केवल हमारा बचपन ही सहज होता है. जब बंदिशें नहीं होती. मर्यादाओं के घेरे गले में फांसी की रस्सी नहीं बांधते, चारों ओर की भीड़ अंगुली की हरकत तक को सिर्फ अपने हितों के परिपेक्ष्य में देखती नहीं फिरती. जब चारों ओर 'ये तुम्हें शोभा नहीं देता' की गूंज पैरों को जकड़े नहीं पडी रहती. बचपन बीत जाने के बाद तो हम सब जीवन भर रंगमंच के विभिन्न पात्रों की भूमिका ही निभाते रहते हैं. खुद हम में से भला कौन जी पाता है?”