मुक्ति.

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“तुम जिंदा क्यों हो? मर क्यों नहीं जाते? मर जाओ...” उसकी तरफ से यह सलाह अनायास नहीं आयी थी. कई दिनों से देख रहा था, वह मुझसे ऊब चली थी. मेरे साथ-साथ, कभी मुझसे आगे, कभी पीछे चलते रहने में उसे उलझन होने लगी थी. लेकिन यह तो उसकी नियति थी, मैं क्या कर सकता था? “मैं क्यों मरुँ?” और क्या कहता उस बेवकूफ से? वह चिहुंक उठी. “क्यों न मरो तुम? तुम्हारा जन्म ही मरने के लिए हुआ है. देखो न. महावीर मरे, बुध्द मरे, गांधी मरे … फिर तुम क्यों न मरो?” मैं भौंचक्का रह गया. कितनी दूर की कौड़ी लाई थी. तुलना भी की तो किनसे?