चैन

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ऐसी ही एक अंजान सी बुझी बुझी सी शाम को वह अपने घर से निकल कर बाहर सड़क पर आ गयी थी. उसे नहीं पता था कि उसे कहाँ जाना है. वह तो बस घर से निकल आयी थी. उस घर से, जहाँ जाते हुए उसका मन हमेशा ही बुझने लगता था. उस घर में वे सारे एशो-आराम थे. जिनकी भी किसी अकल्मन्द आदमी को ज़रुरत हो. मगर उस घर में चैन नहीं था. चैन उस घर की देहरी लांघ कर अन्दर आते हुए अक्सर डर जाता था. और बाहर-बाहर से ही उलटे पाँव लौट जाता था. कई बार उसने भी कोशिश की कि दफ्तर से घर लौटते हुए रास्ते में मेट्रो के दरवाजे से सटा पसरा हुआ चैन का एक लम्हा तोड़ कर अपने साथ घर ले चले.