अगले दिन स्कूल से लौटते समय मौलाना साहब पंडित जी के दरवाज़े रुक गए। सोचा पंडित जी के हाल-चाल लेता चलें। मन में यह भी था कि पंडित जी संकोची प्रवृत्ति के आदमी हैं, कहीं बरन के कारण परेशान न हो रहे हों। चलकर देख-भाल भी लें। मौलाना साहब का स्कूटर रुका तो बरन ने खिड़की खोलकर झाँका। दोनों की नज़रें मिलीं। उसने फिर खिड़की बंद कर ली। मौलाना साहब धूप में खड़े दरवाज़ा खुलने का इंतज़ार करते रहे। उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया नहीं। सोचा था बरन सूचना दे ही देगा, या ख़ुद आकर दरवाज़ा खोल देगा। पर जब खड़े-खड़े पाँच मिनट हो गए तो उन्होंने बढ़कर घंटी बजा दी।