डॉमनिक की वापसी - 4

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सुबह आँख खुली तो लगा की नींद तो पूरी हुई पर सफ़र की थकान से अभी भी देह टूट रही है। लॉज के जिस कमरे में, हम रात में आके सो गए थे वह उसके पहले माले पर था। उसमें कोई खिड़की नहीं थी और दीवारें सीली हुई थीं। शायद इसीलिए हम जागते ही ताज़ी हवा के लिए अपने कमरे से हॉल में आए और वहाँ से उससे जुड़ी बालकॉनी में। सड़क के दोनों ओर दुकानें, दुकानों के माथे पर लटकते आढ़े-टेढ़े बोर्ड, बोर्डों पर दुनिया ज़हान के विज्ञापन, विज्ञापनों में आँखों में आश्चर्य और चेहरे पर चिर स्थाई मुस्कान लिए झांकती कुछ देश-विदेश की महिलाएं।