उस दिन खंजड़ी बजाते हुए, छाती चीर के दिल में धंस जाने वाली आवाज़ में गा रहे थे, डॉमनिक दादा। उनके पीछे थे रूपल, उत्कर्ष, निशा, हरि और निशांत। साथ में उत्तेजना में और भी कुछ गिनी-चुनी मुट्ठियाँ गीत के बोलों के साथ आसमान में उठ रही थीं। यहाँ सवाल गरीबी, बेरोजगारी या भ्रष्टाचार का नहीं था। सवाल जाति, धर्म, या देश में बदलती राजनीति का भी नहीं था। यहाँ सवाल था प्रेम का, प्रेम के अधिकार का, पर यहाँ जैसे उसका हर सोता सूख गया था। उसके बारे में सोच के भी सिहर जाते थे, लोग। महीने भर के भीतर यह तीसरी हत्या थी।