साढ़े तीन आने

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“मैंने क़तल क्यूँ किया। एक इंसान के ख़ून में अपने हाथ क्यूँ रंगे, ये एक लंबी दास्तान है । जब तक मैं उस के तमाम अवाक़िब ओ अवातिफ़ से आप को आगाह नहीं करूंगा, आप को कुछ पता नहीं चलेगा...... मगर उस वक़्त आप लोगों की गुफ़्तगु का मौज़ू जुर्म और सज़ा है। इंसान और जेल है...... चूँकि मैं जेल में रह चुका हूँ, इस लिए मेरी राय नादुरुस्त नहीं हो सकती। मुझे मंटो साहब से पूरा इत्तिफ़ाक़ है कि जेल, मुजरिम की इस्लाह नहीं कर सकती। मगर ये हक़ीक़त इतनी बार दुहराई जा चुकी है कि उस पर ज़ोर देने से आदमी को यूं महसूस होता है जैसे वो किसी महफ़िल में हज़ार बार सुनाया हुआ लतीफ़ा बयान कर रहा है....... और ये लतीफ़ा नहीं कि इस हक़ीक़त को जानते पहचानते हुए भी हज़ारहा जेल ख़ाने मौजूद हैं।