लाजो बेजान कदमों से चलती हुई अपना थका बोझिल शरीर लिए धम्म से कुर्सी पर बैठ गई । उसके ज़हन मं छटपटाती एक ज़ख्मी औरत चीख-चीखकर जैसे उसे धिक्कार रही थी, “क्यों बचाया तूने दीपक को ? आखिर एक निष्कर्मी आदमी को अपनी कोमल निर्दोष बेटियों का खून दिलवाकर क्या तूने उनके साथ अन्याय नहीं किया ? आखिर ज़रूरत ही क्या थी उसे खून देने की जिसने तेरे हर अरमान, हर सपने का खून कर दिया था और ठोकर मारकर चला गया उन्हीं बच्चियों को अनाथ छोड़कर, उनका बचपन छीनकर....। यही तो समय था जब तू अपने प्रतिशोध का बदला ले सकती थी..।“