दस दरवाज़े - 1

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घंटाभर चलकर बस रुकती है। मैं और राणा हैरान-से होकर उतरते हैं कि यह भला कौन-सी जगह हुई। बिल्कुल अनजान-सी। सोचते हैं कि कंडक्टर ने हमें सही जगह ही उतारा होगा। वह जानता था कि हमें बालमपुर जाना है। एक तरफ नहर बह रही थी और दूसरी तरह बारीक-सा कच्चा रास्ता, जिस पर सिर्फ़ एक वाहन ही निकल सकता था। यहाँ न किसी बस के रुकने के लिए अड्डा है, न ही कोई आदमी है और न आदमी का निशान। बियाबान की धूप। सब कुछ यूँ स्थिर, रूका हुआ मानो कभी हवा चली ही न हो। इतनी गरमी और ऊपर से हमारे पहने हुए वकीलों वाले काले कोट और नंगे सिर। नज़दीक कोई दरख़्त भी नहीं कि उसके नीचे खड़े हो सकें। मैं कहता हूँ -