आज उसे अपने जिला प्रमुख होने पर भी किसी तरह के गौरव का अनुभव नहीं हो रहा था बल्कि बहुत ही शर्मसार सा महसूस कर रही थी।वह बहुत ही असमंजस में होकर अन्तर्द्वन्द्व में फँसी हुई थी।उसे कथनी और करनी का अन्तर भी यही लगने लगा कि व्यक्ति बातें भले ही बड़ी-बड़ी कर लें,समाज के रस्मों-रिवाज, रूढियों-परम्पराओं का विरोध कर उनकी कितनी ही आलोचना कर लें परन्तु जब स्वयं उन बन्धनों को तोड़ने की बात आती है तो वह साहस नहीं जुटा पाता है,स्वयं को बहुत ही बेबस और असहाय महसूस करता है और समाज के डर से घुटने टेक