बचपन के दिन थे- चिंता से मुक्त और कौतूहल से भरे पाँवों के नीचे आसमान बिछ जाता। पंख उग आए..., पंखों को फैलाए हम नाना के आसमान में जाने को बेताब..., हम यानि मैं, माँ और छोटी, वैसे हम तीन जोड़ी पंखों को लेकर ही अपने जहाँ से उड़ते लेकिन माँ के पंख छोटे होकर सिकुड़ने लगते। आसमान धरती पर गिरता और पलक झपकते ही बिला जाता, धरती पर पथरीली चट्टानें उग आती। माँ कठपुतली में तब्दील हो जाती।