मेरे बचपन की यादों में जिस तरह अलीबाबा, सिंदबाद, अलादीन, पंचतंत्र की कहानियाँ और अलिफ़ लैला के संग शहर बगदाद आज भी ज़िंदा है उसी प्रकार पिछले सैंतीस वर्षों से मुम्बई मेरे खून में रच बस गया है जब मैं यहाँ आई थी तो यह बम्बई था अब बम्बई को मुम्बई कहती हूँ तो लगता है एक अजनबी डोर मेरे हाथ में थमा दी गई है जिसका सिरा मुझे कहीं दिखलाई नहीं देता शहरों के नाम जो अनपढ़ गँवार, बूढ़े, बच्चे सबकी ज़बान से चिपक गये हों..... केवल मुम्बई ही नहीं पूरे भारत का हर शहर, हर गाँव बम्बई नाम में अपने सपने खोजता है क्योंकि यह शहर सपनों के सौदागर का है आप सपने खरीदिए वह बेचेगा..... एक से बढ़कर एक लाजवाब सपने..... रुपहले, चमकीले, सुनहले और जादुई.....