हमारे बीच युगों की धुंध थी..... पृथ्वी के इस छोर पर मैं हूँ, दूसरे छोर पर सिगरेट का धुआं उड़ाता वह, पश्चिम में अस्त होने को अकुलाता मेरी उंगली पर टंगा सूरज... मुझे उम्मीद है कल फिर उदय होगा। उस पहाड़ी पर जो मेरे पीठ पीछे है तब मेरा चेहरा स्वतः उधर घूम जाएगा... सूरज के सात रंग इसकी किरणों का जाल इस महीन रोशनी में लिपटी धुंध को चीरकर देख रही हूँ...। ‘‘हाँ यही तो...।’’