शकबू के गम को शाहीन ने कुछ ही दिनों में अपनी सेवा, हुस्न, प्यार से खत्म सा कर दिया। इसका अंदाजा मुझे शकबू के आने वाले फ़ोन से होता। वह शाजिया की बात तो कहने भर को करता और शाहीन के गुणगान से थकता ही नहीं। मैं मन ही मन कहता वाह रे हुस्न, आंखों पर पल में कैसे पर्दा डाल देता है। शाजिया जो पचास साल साथ रही उसको भुलाने में पचास दिन भी नहीं लगे।