मजीद का माज़ी

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मजीद की माहाना आमदनी ढाई हज़ार रुपय थी। मोटर थी। एक आलीशान कोठी थी। बीवी थी। इस के इलावा दस पंद्रह औरतों से मेल जोल था। मगर जब कभी वो विस्की के तीन चार पैग पीता तो उसे अपना माज़ी याद आजाता। वो सोचता कि अब वो इतना ख़ुश नहीं जितना कि पंद्रह बरस पहले था। जब इस के पास रहने को कोठी थी, ना सवारी के लिए मोटर। बीवी थी ना किसी औरत से उस की शनासाई थी। ढाई हज़ार रुपय तो एक अच्छी ख़ासी रक़म है। इन दिनों उस की आमदनी सिर्फ़ साठ रुपय माहवार थी। साठ रुपय जो उसे बड़ी मुश्किल से मिलते थे लेकिन इस के बावजूद वो ख़ुश था। उस की ज़िंदगी उफ़्तान-ओ-ख़ीज़ां हालात के होते हुए भी हमवार थी।