हिम स्पर्श - 68

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68 “तुम्हारे आने की, तुम्हारे पदचाप की ध्वनि सुनाई नहीं दी। जीप की ध्वनि भी नहीं सुनाई दी। मुझे ध्यान ही नहीं रहा तुम्हारे आने का।“ जीत ने द्वार की तरफ देखा। जीप वहाँ खड़ी थी। “मैं कोई छुपते छुपाते नहीं आई। ना तो मेरे पदचाप मौन थे ना जीप की ध्वनि। कुछ भी असाधारण नहीं किया मैंने।“ “सब साधारण सा था तो फिर मैं ने कुछ भी सुना क्यूँ नहीं?” “जीत,जब हमारे अंदर कोलाहल हो तो बाहर की ध्वनि नहीं सुनाई देती। जब अंदर की ध्वनि तीव्र हो तब हमारे कान दूसरी किसी भी ध्वनि को नहीं पकड़