ओफ्फ़! कल शाम ही तो वह यहाँ आया है. पर ऐसा लग रहा है मानो हफ़्तों से नज़रबंद है यहाँ. कैसे रह पाते हैं लोग, भला इन छोटे कस्बों में? ठीक है पहले यहाँ एक आदिम बस्ती थी. पर अब तो काफी विकास हो चुका है. कहने को कॉलेज हैं, अस्पताल है, बैंक हैं, सरकारी कार्यालय हैं, पर सब जैसे चींटी की रफ़्तार से चल रहें हों. महानगरों की दौड़ती भागती ज़िन्दगी का आदी अभिषेक, तालमेल नहीं बिठा पा रहा था इस ऊंघते कस्बे के जनजीवन से बुरी तरह झुंझला उठा था. वह भी एक ही पागल है, क्या जरूरत थी उसे, यहाँ आकर यह सब भोगने की. अभी तो पूरे दो दिन बाकी हैं, लौटने में. अल्लाह ही मालिक है अब.