बाबू गोपी नाथ से मेरी मुलाक़ात सन चालीस में हूई। उन दिनों मैं बंबई का एक हफ़तावारपर्चा एडिट किया करता था। दफ़्तर में अबदुर्रहीम सीनडो एक नाटे क़द के आदमी के साथ दाख़िल हुआ। मैं उस वक़्त लीड लिख रहा था। सीनडो ने अपने मख़सूस अंदाज़ में बाआवाज़-ए-बुलंद मुझे आदाब किया और अपने साथी से मुतआरिफ़ कराया। “मंटो साहब! बाबू गोपी नाथ से मिलिए।”