सड़कछाप - 11

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आसफ अली रोड और नाका यही बुदबुदाता रहा वो रास्ते भर। उसकी आदत थी कि एक वक्त में एक वजह को पकड़कर वो जीने-मरने को उतारू रहता था। दो रुपये पचहत्तर पैसे के टिकट को उसने जेब के बजाय उंगलियों में फंसा रखा था। बार-बार वो कंडक्टर से पूछता “आसफ अली का नाका आ गया, आसफ अली का नाका आ गया”। कंडक्टर उसको समझाता कि जब आयेगा तब मैं खुद बता दूंगा। फिर भी अमरेश बार -बार पूछता । वो आशंकित था कि कहीं वो नाका छूट गया तो आदमियों के इस महासमुद्र में वो अपने पहचान वालों को कहाँ ढूंढेगा। जरूरी नहीं कि उसे हर बार सरदारजी जैसे कोई देवता आदमी मिल जायें।