मैं जब कभी ज़ेल का वाक़िया याद करता हूँ, मेरे होंटों में सोईयां सी चुभने लगती हैं। सारी रात बारिश होती रही थी। जिस के बाइस मौसम ख़ुनुक होगया था। जब मैं सुबह सवेरे ग़ुसल के लिए होटल से बाहर निकला तो धुली हुई पहाड़ियों और नहाए हुए हरे भरे चीड़ों की ताज़गी देख कर तबीयत पर वही कैफ़ीयत पैदा हुई जो ख़ूबसूरत कुंवारियों के झुरमुट में बैठने से पैदा होती है। बारिश बंद थी अलबत्ता नन्ही नन्ही फ़ुवार पड़ रही थी। पहाड़ीयों के ऊंचे ऊंचे दरख़्तों पर आवारा बदलियां ऊँघ रही थीं गोया रात भर बरसने के बाद थक कर चूर चूर होगई हैं।