अनकही

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बैलगाड़ी नहरिया पार जा रही थी- हिचकोले पर हिचकोले खाती हुई...कच्चे मिट्टी के पुल से, धूल के गुबार उठकर, घेराबंदी करते हुए. मंगला ने घूंघट की ओट से, झांककर देखा. नहर से लगी, धोबी काका की मडैया, धुंधली जान पड़ी. सूरज के साथ, पखेरू भी वापसी पर थे. गोधूलि का उदास संगीत, बंसी के क्षीर्ण स्वरों में, ध्वनित हो रहा था. गऊओं को हांकते बाल-चरवाहे, फुदकना भूल, थके कदमों से लौट रहे थे... एक रहस्यमय नीरवता, दियों में टिमटिमाती, कौंधती हुई सी. न जाने क्यों मंगला की आँखें छलक आयीं. कलेजे में हूक सी उठी. यहीं से उसकी