आशा को डर लगा। क्या हुआ यह? माँ चली गईं, मौसी चली गईं। उन दोनों का सुख मानो सबको खल रहा है, अब उसकी बारी है शायद। सूने घर में दाम्पत्य की नई प्रेम-लीला उसे न जाने कैसी लगने लगी। संसार के कठोर कर्तव्यों से प्रेम को फूल के समान तोड़कर अलग कर लेने पर यह अपने ही रस से अपने को संजीवित नहीं रख पाता, धीरे-धीरे मुरझाकर विकृत हो जाता है। आशा को भी ऐसा लगने लगा कि उनके अथक मिलन में एक थकान और कमजोरी है। वह मिलन रह-रहकर मानो शिथिल हो जाता है- प्रेम की जड़ अगर कामों में न हो तो भोग का विकास पूर्ण और स्थाई नहीं होता।