आजाद-कथा - खंड 2 - 65

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हमारे मियाँ आजाद और इस मिरजा आजाद में नाम के सिवा और कोई बात नहीं मिलती थी। वह जितने ही दिलेर, ईमानदार, सच्चे आदमी थे उतने ही यह फरेबी, जालिए और बदनियत थे। बहुत मालदार तो थे नहीं मगर सवा सौ रुपए वसीके के मिलते थे। अकेला दम, न कोई अजीज, न रिश्तेदार पल्ले सिरे के बदमाश, चोरों के पीर, उठाईगीरों के लँगोटिए यार, डाकुओं के दोस्त, गिरहकटों के साथी। किसी की जान लेना इनके बाएँ हाथ का करतब था। जिससे दोस्ती की, उसी की गरदन काटी। अमीर से मिल-जुल कर रहना और उसकी घुड़की-झिड़की सहना, इनका खास पेशा था। लेकिन जिसके यहाँ दखल पाया, उसको या तो लँगोटी बँधवा दी या कुछ ले-दे के अलग हुए।