दलित साहित्य का अर्थ दलित समाज से संबंध रखने वाले व्यक्तियों की लेखनी से निकली शब्दों की वह धारा है जिसमें उनकी व्यथा, घुटन तथा आक्रोश के दर्शन होते हैं। दलित साहित्य वह हुंकार है जो समाज की जातिगत व्यवस्था का विरोध ही नहीं करती है बल्कि उससे टकराने का उद्घोष भी करती है। दलित चिंतन के नए आयाम का यह विस्तार साहित्य की मूल भावना का ही विस्तार है जो पारस्परिक और स्थापित साहित्य को आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य करता है। झूठी और अतार्किक मान्यताओं का विरोध करता है। निरंजन कुमार अपनी किताब मुनष्यता के आइने में दलित साहित्य का समाजशास्त्र’ में लिखते हैं- “समाज और इतिहास दलितों के लिए जितना बर्बर और अमानवीय रहा, उसके विरूद्ध उनकी प्रतिक्रिया आक्रोशपूर्ण और एक उन्माद के रूप में रही, यह स्वाभाविक ही है बल्कि एक सीमा तक नैतिक भी है।”