शोक का पुरस्कार

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सबेरे उठ कर क्या देखता हूँ तो बाबू निरंजनदास मेरे सामने एक कुर्सी पर बैठे हैं निरंजनदास के हाथ में एक डायरी थी जिसे वह बड़े ध्यानपूर्वक देख रहे थे और शायद पढ़ भी रहे थे उन्हें देख कर ही मैं बड़े चाव से उनसे लिपट गया पर अफ़सोस अब उस दैवी स्वभाव वाले नौजवान की सूरत देखना मेरे नसीब में न होगा अचानक हुई मौत से उन्हें हमसे सदा के लिये अलग कर दिया वे कुमुदिनी के सगे भाई थे और मुझसे सिर्फ चार साल ही बड़े थे, ऊँचे पद पर नियुक्त थे और कुछही दिनों पहेले इस शहर में उनका तबादला हुआ था, मैंने उनसे पूछा...